Monday, 26 December 2016

क्षुधा


दूर, बहुत दूर, क्षितिज पर, उदित होते हुए सूर्य को देख कर
उठती है मन में बस यही बात,
शायद यह अरुणिम किरण आज,
लाई है आशा की नवज्योति साथ,
मन में यह नवकल्पना लिए हुए, 
चल रहा भिखारी झुके हुए |
उदर है पीठ से सटे हुए,
पर दुर्भाग्य --------- कि
नहीं पड़ती किसी की नज़र इनपर
गर, पड़ भी जाये तो मिलती है ---------
बस दुत्कार और फटकार |
चैत की कड़कती धूप में, जल रहे हैं बदन
फिर भी आँखों में
घिर आया है सावन,
दिल के दो टुकड़े हैं साथ
थामे दामन |
किन्तु घिरने लगी है अब लालिमा संध्या की, यूँ खत्म
होता है सफ़र भिखारी का,
मान ईश्वर की देन इसे
रह गए भरोसे, भाग्य के
पर कैसे समझाएं इन दिल के टुकड़ों को
जो है तड़पते क्षुधा से |
सफ़र जो शुरू हुआ था, सूर्य की तेजस्वी किरणों के साथ
खत्म भी हुआ, सूर्य की डूबती किरणों के साथ |
किन्तु क्षुधा अब भी है साथ |
-मधु रानी

06/04/1983

Friday, 16 December 2016

प्रकृति की ओर…


क्या, तुमने कभी सूर्य को अस्त होते देखा है ?
नहीं देखा, तो देखो अवश्य ।
गोधुली बेला से पूर्व,
अस्ताचल सूर्य की किरणें,
कैसी - कैसी चित्रकारी करती हैं,
आकाश के पटल पर,
पश्चिम की ओर --------
       शायद इसे ही देखकर,
       उन्मुख हुए होंगे कुछ लोग
       जब उठा ली होगी कूची हाथों में,
       और प्रकृति में बिखरे रंगों से
       कुछ रंग चुराकर, उड़ेल दी
       उम्र के पन्नों पर, और
       मोड़ दी जीवन - धारा,
चित्रकारी की ओर ---------
       ईश्वर से बड़ा चित्रकार, कलाकार कोई नहीं
             ये अनुभूति हमें होगी,
        जब हम जीवन के कुछ क्षण
        उनकी कृति को देखने और
        हृदयस्थ करने में अर्पण करें और
निहारें, प्रकृति की ओर ---------
        शशि - रवि की,
        बादलों के साथ लुका - छिपी,
        मोहित करती है मुझे निरंतर ।
        उमड़ते - घुमड़ते बादल,
        भिन्न - भिन्न आकृतियाँ,
बनाते हैं जब, अपलक देखते रहते हैं,
नयन मेरे ऊपर की ओर --------
    हेम बालियाँ हों खेतों में, गेंहूँ की या
    हिम चादर ओढे खड़े हों पर्वत विशाल,
    पठारों से होकर बहती नदियाँ हों या
    हो उफान लेता, विस्तृत उदधि,
    अरण्य की सिंह गर्जना या प्रत्यूष में
    खगों की चहचहाहट हो,
    उर मचल उठता है -------
    इन कलाओं की ओर -----
          कैसे इन विहंगम सजीव सौंदर्य को
          कोई अनदेखा कर सकता है भला ?
          कैसे इनसे अछूता कोई रह सकता है भला,
         जीवन में रस भरना है तो,
         कोलाहल से दूर,  एकांत में,
         प्रकृति के बीच बैठकर,
         कुछ पल बिताना,
         होगा एक कदम
         सुखद जीवन की ओर ----- ।

                                             -मधु रानी
                                              03/07/2015
     

Friday, 25 November 2016

मायका से विदाई तक


मेरे विवाह की रात
चिर प्रतीक्षित पल
माँ, बाप, भाई, बहन प्रसन्न
माँ कभी-कभी नज़र आ रहीं हैं
काम का बोझ, तिस पर जोड़ों का दर्द
जब दिखतीं, लँगड़ाती हुईं
मैं अन्दर-ही-अन्दर रोती हुई सोचती –
क्या, ज़रूरी है यह विवाह?
क्या, मैं माँ-बाप का नहीं बन सकती सहारा?
नहीं रह सकती उनके साथ, आजीवन?
फिर यह आडम्बर क्यूँ?
बूढ़ी हड्डियों में दर्द
फिर भी वैवाहिक रीति-रिवाज़
पिता दौड़ रहे, देख-रेख कर रहे
कोई न रह जाए कमी
बारातियों के स्वागत में
बिटिया के सुख का सवाल था
मेरा हृदय विदीर्ण होता हुआ
आँखें अश्रुपूरित, छलछलाती हुईं
न कोई पूछ रहा हाल है मेरा
न बता पा रही हूँ मैं कुछ
कहना क्या? जी चाहता है
कहूँ चीख कर, माँ-बाप से लिपट कर
नहीं जाना मुझे, छोड़ कर इस देहरी को
आप सब लोगों को..... |
पर दर्द सीने में छुपाये, झेल रहीं हूँ इस होने वाले
परिवर्तन को |
भाई बना मजदूर-सा
इधर-उधर भाग रहा
कभी देखा न था काम करते उन्हें
सदा किया मैंने, काम उनका था
आज जैसे वह, उतार रहे थे कर्ज़ मेरा
बड़े भैया तो दिख भी नहीं रहे थे
बेहद प्यार किया, छोटे से ही मुझे
अब लगे हैं खातिरदारी में
छोटी प्यारी बहन के घरवालों की
खुशामद में.....
कोई दुःख न रहे उनकी बहन को |
छोटा भाई, मेरा प्रिय साथी,
बचपन का.... |
साथ खेला, पढ़ा, झगड़े भी हम
आज वह भी है व्यस्त
मुझे भेजने में पराया घर |
क्या बताऊँ दीदी के विषय में
मेरे दिल के सबसे निकट
गोद में ढोया अक्सर छुटपन में
खुद दुबली वह, मैं मोटी-भारी
जाने कैसे संभाला हमेशा मुझे
प्यार-दुलार उनका, पढ़ाना उनका
याद बहुत आएगा |
कैसे जाऊँगी कल
छोड़कर इन सबको
आँखें धाराप्रवाह बहने लगीं |
यही नहीं, मेरे अन्य
सगे-सम्बन्धी भी
बहुत मानते हैं, प्यार करते हैं
सब दौड़-भाग रहे हैं
दो पल बात करने को तरस रही हूँ
मैं भी उठ पड़ती हूँ
मदद में इनकी |
कभी संभाल रही दीदी की
साल भर की बेटी को
कभी भाइयों को
पिला रही पानी-शरबत |
दिल में मच रही हलचल है
पूरा कुनबा लगा है
सिर्फ एक बेटी को विदा करने में |
सब खुश हैं कितने
एक मैं ही हूँ  दु:खी,
डरी-सहमी, कैसे बनाऊँ
संतुलन— दिल, दिमाग, परिजन और
पराये घर के बीच |
आ ही गयी वह घड़ी
विदाई की..... |
माँ, भाभी, दीदी
बड़ी माँ, छोटी बहन,
और मैं....
रुलाई रुक नहीं रही
रोने की मानो
चल रही हो प्रतियोगिता |
जो भी गले लगाता मुझे,
छोड़ती नहीं मैं
अलग होने का जी नहीं करता
काश!!! रोक ले कोई मुझे.... |
याद है मुझे
किसी को भी नहीं छोड़ा था मैंने
गले से लगी थी,
हर किसी के |
बड़े पापा, पापा, बड़े भाइयों,
बड़ी माँ, माँ, बड़ी दीदियों,
छोटे भाई, बहन
भतीजे-भतीजी सबके |
एक मात्र प्यारी बुआ
जो मुझे थीं जान से प्यारी, उनके भी |
अजब दृश्य था यह
गूँज रहा था पूरा घर
रोने के स्वर से |
पिता से लगकर गले
खूब रोई
अपनी हर गलती की मांगती रही माफ़ी
पिता भी रोते रहे, कहते रहे
"नहीं बेटी, तूने तो कभी कोई गलती की ही नहीं” |"
कलेजा और भी मुँह को आने लगा |
माँ ने कहा
"ससुराल में भी ऐसे ही बने रहना |"
दीदी ने दीं, कुछ शिक्षाएं
अश्रु, सिसकी, और तब भी उनकी
शिक्षा- चिपट गयी मैं, कहा –
कुछ नहीं सुनना, सीखना है मुझे
बस यहीं अपने पास रहने दो मुझे |
भैया ने दी सांत्वना
बस, कल ही मैं आऊँगा लेने
अभी तो चली चल |
काँधे का सहारा देकर लाये
सजी-सँवरी सवारी तक |
छोटा भाई खड़ा था, रोता हुआ
पानी और लड्डू हाथ में लेकर |
मैंने भर लिया उसे बाहों में
सीने से उसके लगकर
रोई खूब |
भाई अब कैसे बीतेगा दिन
बिना तेरे |
कौन मेरा साथी होगा?
बस छूट गया यहीं सब कुछ
कांपते होंठ, रुंधे गले,
धाराप्रवाह अश्रु,
शिथिल पड़ा शारीर
जैसे प्राण ही न हों
डगमगाते कदम
कांधों का सहारा
और ओझल होते लोग |
आज इस उत्सव में शामिल
कितने ही लोग बिछड़ चुके हैं
जब भी सोचती हूँ,
दिल भर आता है
आँखें डबडबा जाती हैं,
कितना योगदान था उनका
आज वो रहे नहीं
मेरे जीवन को सवाँर कर
कहाँ चले गए?
कृतज्ञता से झुक जाता है सिर
शत शत नमन करती हूँ उन्हें |
आँखें तो बस बहती ही रहती हैं
कैसे रोकूँ ये आँसू ???
मायका छूट गया पर
हृदय में मैंने अब भी बसाया
हुआ है प्यारा मायका |
मायके के दुलार का
एहसास होता है
विदाई के वक़्त |
-- मधु रानी
             २५/११/२०१६


Friday, 21 October 2016

फलसफा.... जीवन का

क्षणिकाएँ...


१. कभी-कभी
     खामोश रहना ही
     सुकून देता है,
     पर ये भी तब
     मयस्सर नहीं होता
     जब जग आपकी
     चुप्पी तुड़वा देता है.....।
          ________

२. थक कर जीवन
     की तपिश से
     शीतल छाँव
     कहाँ तलाशूँ ?
          ________

३.  शब्द - शब्द को जोड़ रही
      तालमेल न बैठा पाऊँ
     द्विविधा ये कि कैसे बने
     शब्दों की सुंदर माला
     उद्वेलित मन की हाला (व्यथा)
          ________

४.  ये जीवन जब
     बीता आधा
     ख्याल तब
     ये आया -
     कुछ किया नहीं
     कुछ जिया नहीं
     जीवन को यूँ ही
     गवाँ दिया ........ ।
          ________

५. उलझनों को
    सुलझाते - सुलझाते
    कुछ ऐसे उलझे कि
    जब तक समझे
    जीवन को हम
    उम्र हद से बढ़ा लिया ,....|
          ________

६. कहते हैं वो "लिखना"
    बेकारों का काम है
    पर लिखना
    क्या इतना आसान है ?

          ________

७. मीठी वाणी
    कहाँ से लाऊँ
    जब जीवन ने
    दिया जहर हो .,....

          ________

८. पाप बहुत किए
     हैं मैंने
     है अहसास
     इसका हमें
     पश्चाताप पर,
     करुँ कैसे
     कड़वाहट ने
     छीनी मिठास है |

          ________

९. उम्र के ढालान पर
    मर - मर कर क्यूँ जिया जाए
    बहुत जी लिया मर्ज़ी से अपनी
    अपनों की मर्जी से अब
    फिर से क्यों न जिया जाए |

          ________

१०. जिंदगी का फलसफा है
      बस इतना - सा
      दूसरों की खुशी मेें
      अपनी खुशी ढूंढी जाए |
                                                 
                                                     -मधु रानी
                                                     19/05/2016

Tuesday, 11 October 2016

दशहरा


       
हे मानव,
            जला आज ,
            भीतर के रावण को
            बन जा फिर से
            राम तू ...... ।
            जैसे बालपन में था
            अपनी माँ का
            सपूत तू......।
            माँ भी थी
            इठलाती ,
            बन राम की
            कौशल्या
            अब मनाती शोक
            कहाँ गया
            मेरा लल्ला ?
            शुभ दिन है
            आया आज
            द्वेष त्याग
            बढा आस
            असुर नहीं
            इन्सान बन।
            राह देखती,
            निस्तेज आँखें
            द्वार खुला है
            आस में तेरे ।

                बन राम अब , लौट अयोध्या
                प्रेमभाव और स्वर्ग यही है ।
               अंतरमन हो शुद्ध सभी के
               जीवन का उत्सर्ग यही है ।
               बुराई पर अच्छाई की
               जीत का अर्थ यही है ।
               विजयादशमी या
               दशहरा का पर्व यही है ।                
              अपने अंदर के                
              अहं को जला                
              पुतला नहीं                
              अपने ' मैं ' को जला                
              जल रहा गर रावण आज                
              जलाने वाला भी तो हो                
              राम आज                
              फिर से आए , राम - राज ।
                                                          - मधु रानी
                                                            11/10/2016

Saturday, 8 October 2016

माँ दुर्गे....

तुम से सृष्टि है,
तुम से सिद्धी है,
तुम शक्ति हो,
तुम भक्ति हो,
तुम दाता हो,
तुम माता हो,
तुम करुणा हो,
तुम रौद्र हो,
तुम सत्य स्वरूपा हो,
तुम दु:ख हरणी हो,
कल्याण-मयी हो,
दुष्ट-विनाशक हो,
तुम पूजनीय हो,
तुम सर्वस्व हो,
तुम नारी हो,
तुम देवी हो,
फ़िर आज कुछ नारी
       अबला क्यों?
पुरुष करते अराधना तेरी,
फ़िर नारी का अपमान क्यों?
क्यों देती हो शक्ति उन्हें,
जो नारी का करते
      शील-भंग?
क्यों मूक, देख रही 'माँ' तू
अपनी पुत्री का
   चीर-हरण?
कैसे सुनते कर्ण, तेरे माँ
चीत्कार,
असहाय अबलाओं की?
तुझे मानते 'देवी' जब
फ़िर हमें निरा 'वस्तु' क्यों?
नही क्षम्य है माँ 'वह'
जो माता को आराध्य मानते
और माँ-बहनों को छलते रहते।
कर दे शक्ति का
संचार हममें भी,
बन जाएँ चंडी हम भी,
दुष्टों को मार।
कर दे भस्म
त्रिनेत्र खोल,
कुदृष्टि जो डाले,
नारी पर।
दे रौद्र-रूप
दे ज्वाला प्रचंड
दे शक्ति
दस भुजाओं की।
अा, बस जा,
अंतरमन में हमारे
हृदयस्थ कर लें
तुझे हम माँ।
दे दंड उन्हें
दर्प चूर कर
कर शंख नाद
विध्वंस, कर
माँ हमें भी
तू सबल कर
दामिनी बन
टूट पड़ें
पापियों का
नाश करें ।
या फिर
माँ तू स्वंय आ
आ माँ -
हमारी लाज बचा ।
हुंकार भर,
दस दिशा कँपा,
कर पाप नाश
कर पाप नाश।

Sunday, 18 September 2016

विभीषिका


सुना है
         जल ही जीवन है
पर यहाँ तो
          जीवन को ही निगल रहा जल है ।
ये कैसा जल है ?
जिधर देखो जल ही जल है
इस ओर, उस ओर, सब ओर
तैर रहे सब , जल - जीव बनकर
घर, मकान, सामान, दुकान,
मानव, पशु और चराचर
मचा है हाहाकार, चीत्कार,
क्रंदन, रुदन, त्राही - त्राही
अश्रु , जल में विलीन हो रहे हैं
      छटपटाहट, अकुलाहट, बेचैनी,
      घबराहट, सब, समाए जा रहे हैं
      जल के हलचल में धीरे - धीरे ।
      जीवन या तो खर - पतवार की
      तरिणी (नैया) पर है सवार
या -
      दम तोड़ता, शांत होता जा रहा
      कल - कल, छल - छल बहते जल में ।
      जल - मग्न है, गाँव, घर, जीवन, सब
      अस्त - व्यस्त, अफरा - तफरी
      किसे छोड़ें, किसे बचाएँ ।
      जिस नद को माता माना
      पूजा, नत् - मस्तक होकर हरदम ।
आज उसी की गोद में
डोल रहे हम,
जीवन - मरण के बीच
मृत्यु - शैय्या बन कर ।
हे माँ,
      लघु हो जा तू
फिर से,
      प्रचंड रूप से तेरे
      थर्राये हैं हम डर से ।
शिशु है चिपटा माँ से
जल के जलजले में
हाथ छूटा, साथ छूटा, गोद छूटी
हाय ! ये क्या ! ?
शिशु का माँ से आस छूटा, श्वास टूटी
पल में सारा संसार छूटा,
ये कैसा अंत ???
...... कौन किसके आंसू पोछे
        कौन दिलासा दे किसको
परिवार बिखरे,
लोग बिछड़े,
स्वयं के प्राण, बचाएँ या
अपनों को ढूंढूें,
कोई तो आए, हमें बचाए
 
 इस निष्ठुर जल के प्रकोप से
बहते धार के साथ - साथ
बह चले हम भी, मजबूर हैं हम
जो बचे भाग्य से, वह भी,
रो रहे, हाय ! मेरे - अपने कहाँ गए ?
भिखारी बना दिया है
इस विभीषिका ने हमें
भोजन ऐसे लूटते हैं
जैसे कभी मिला न हो
ऐसे झपटते हैं, जैसे
इन्सान नहीं पशु बन गए हों हम
कैसी विडंबना, कैसा दुर्भाग्य हमारा
उस पर नेताओं की चलती राजनीति
भेद देती है, हृदय भीतर तक
क्या- क्या सुनाएँ, किसे सुनाएँ
हम तो बन कर रह गए हैं
केवल, "आज के मुख्य समाचार" ।
बिना जल के दम तोड़ते देखा था
जल के कारण
जान जाते भी आज देखा है
हृदय- विदारक दृश्य यह
कलेजा कँपा देती है जब
तो झेलने वाले इसे
क्या कभी भुला पाते होंगे?
त्रासदी यह, कहानी कहती है
स्वंय ही___
पर क्या इसे रोक पाना
सचमुच है असंभव?
चाँद और अंतरिक्ष को
जीत आया मानव
क्यों हार मानता आ रहा है
धरती पर
प्रकृति के प्रकोप से?
तिस पर,
        कुछ की सोच तो देखो
        लूट रहे, लुटे हुओं को कैसे?
        कैसे नोंचते गिद्ध बने हैं
        परोपकार को ताक पर रखकर
        छीन निवाला मजबूरों से
        खुद को सिकंदर समझ रहे हैं
        कैसी मति गई मारी, कि
        स्वयं को पशु बना डाला है ।

क्या यह विभीषिका की पराकाष्ठा है ?

             - मधु रानी
               30/08/2016

Sunday, 14 August 2016

…फिर कैसी साम्प्रदायिकता?



(70वें स्वतंत्रता दिवस पर)

देश का गुरूड़ है तिरंगा,
देश की जान है एकता...
...फिर कैसी साम्प्रदायिकता?

       देश का अभिमान है-- देशभक्ति
       देश की प्राण है-- जनता…
       ...फिर कैसी साम्प्रदायिकता?

देश में अपार है-- प्रतिभा
देश की शान हैं-- युवा…
... फिर कैसी साम्प्रदायिकता?

       देश में हैं धर्म अनेक
       मिली सबको है समानता…
       …फिर कैसी साम्प्रदायिकता?

देश है सभी का
हिन्दू हो या मुसलमाँ…
…फिर कैसी साम्प्रदायिकता?

       देश के त्योहार हैं-- ईद, होली
       बिना भेदभाव सबको गले मिलाता…
       …फिर कैसी साम्प्रदायिकता?

देश के सरताज हैं सर्वधर्म,
सिख, इसाई, हिन्दू, इसलाम…
... फिर कैसी साम्प्रदायिकता?

       भारत की पहचान हैं सारे
       भगत, अम्बेदकर, नौरोजी, मौलाना…
       ... फिर कैसी साम्प्रदायिकता?

गर छोड़ो राजनीति
अपनाओ मानवता…
... तो फिर कैसी साम्प्रदायिकता?

       नेता हमें हैं लड़ाते
       पर लोग शांति चाहते…
       ... फिर क्यों है साम्प्रदायिकता?

न आओ झाँसे में उनके
जो देश को डुबाते…
...बढ़ाते साम्प्रदायिकता।

       दुश्मन थे- अंग्रेज़ हमारे
       अब आपस में हम क्यों लड़ें?
       ये कैसी साम्प्रदायिकता?

हम एक हैं, कसम से,
न तोड़ो हमें फिर से…
…मिटा देंगे हम, साम्प्रदायिकता।

Monday, 8 August 2016

मित्रता


मित्र बनाओ, मित्रता करो, अवश्य करो।
जीवन में दो चार नहीं तो -
            एक ही सही,
पर मित्र तो होने चाहिए अवश्य ही  क्योंकि -
ये तब काम आते हैं, जब
            हम हर रिश्तों से -
या तो संतुष्ट होते हैं, या -
कुछ रिश्ते टूट या छूट चुके होते हैं ।
दोनों स्थितियों में --
खुशियाँ भरती हैं जीवन में --''मित्रता''
क्योंकि --
पूर्ण रिश्तों की छलकती खुशियों
या --
छूट गए रिश्तों की दु:खद गाथाओं में
           'संतुलन'
बनाती है --''मित्रता'' ।
राह से भटका दे - वह
मित्र नहीं, मित्रता नहीं ।
भटके जीवन को राह पर
लाती है --
           'मित्रता' ।

                                  --मधु रानी
                                    15/03/2015

Saturday, 6 August 2016

याचना

कर जोड़ कर
नमन करुँ  माँ
नत-मस्तक हो 
क्षमा मागूँ मैं ।
         
         आज़ाद किया अँग्रेजों से पर ,
         अब भी तू परतंत्र दिखे माँ
         भ्रष्टाचार की जंजीरों से
         कैसे करुँ स्वतंत्र तुझे माँ ?

तेरी ही छाती पर मूँग दरें
ऐसे कुपुत्र क्यों जनीं, तूने माँ
नोंच रहे गिद्धों - सा तुझे
कैसे मनाऊँ आज़ादी, तेरी माँ ?
        
        तू दिल-ही- दिल में रोती, धुटती
        दिग्गज़ जन रहे रक्त की नदियाँ बहा
        अश्रु और रक्त, अब मिट्टी को सींच रहे
        जहाँ उगते थे स्वर्ण-बाली, वहाँ भ्रष्टाचारी उग रहे।

क्षमा-दान दे दे माँ,मुझको
मैं न लगा पाऊँगा अबकी
तेरी स्वतंत्रता का नारा
जब तक तू न होती स्वतंत्र।

                                         -मधु रानी
                                          06/08/2016

Wednesday, 27 July 2016

'माँ', एक लघु शब्द

'माँ', एक लघु शब्द
किंतु अत्यंत ममत्व भरा
वह लघु शब्द-----
जिसकी लघुता में स्नेह बड़ा।

'माँ' शब्द का अर्थ 'माता'----
जिसमें सहने की अपूर्व क्षमता, भले ही दिल में हाे पीड़ा।

'माँ' एक लघु शब्द-----
जो ममता का सूचक, वात्सल्य का प्रतीक,
वह वात्सल्य-----
जिसमें भावुकता की उठती तरंगें हैं,
जिसमें अदम्य विश्वास-----
और करुणा की लहराती सागर-लहरें हैं।

'माँ' एक लघु शब्द-----
जिसमें शांति का बाहुल्य है और
जो मानवता की प्रतिमूर्ति है।
वह प्रतिमूर्ति-----
जो दुनिया की शायद, निधि सबसे बहुमूल्य है।

यह शब्द 'माता' का प्रतीक-----
'माता'----
जिसके अश्रु की एक बूँद भी अमूल्य है।
माँ की आँखों में अश्रु न आने पाएँ
यही प्रयास हमारा-----
उसके दूध का मूल्य है।

'माँ'एक लघु शब्द-----
किन्तु सुख से भरा,
समस्त ब्रह्मांड जैसे इस एक
लघु शब्द में समाया हुआ।

--मधु रानी,
01/02/1983