Sunday, 18 September 2016

विभीषिका


सुना है
         जल ही जीवन है
पर यहाँ तो
          जीवन को ही निगल रहा जल है ।
ये कैसा जल है ?
जिधर देखो जल ही जल है
इस ओर, उस ओर, सब ओर
तैर रहे सब , जल - जीव बनकर
घर, मकान, सामान, दुकान,
मानव, पशु और चराचर
मचा है हाहाकार, चीत्कार,
क्रंदन, रुदन, त्राही - त्राही
अश्रु , जल में विलीन हो रहे हैं
      छटपटाहट, अकुलाहट, बेचैनी,
      घबराहट, सब, समाए जा रहे हैं
      जल के हलचल में धीरे - धीरे ।
      जीवन या तो खर - पतवार की
      तरिणी (नैया) पर है सवार
या -
      दम तोड़ता, शांत होता जा रहा
      कल - कल, छल - छल बहते जल में ।
      जल - मग्न है, गाँव, घर, जीवन, सब
      अस्त - व्यस्त, अफरा - तफरी
      किसे छोड़ें, किसे बचाएँ ।
      जिस नद को माता माना
      पूजा, नत् - मस्तक होकर हरदम ।
आज उसी की गोद में
डोल रहे हम,
जीवन - मरण के बीच
मृत्यु - शैय्या बन कर ।
हे माँ,
      लघु हो जा तू
फिर से,
      प्रचंड रूप से तेरे
      थर्राये हैं हम डर से ।
शिशु है चिपटा माँ से
जल के जलजले में
हाथ छूटा, साथ छूटा, गोद छूटी
हाय ! ये क्या ! ?
शिशु का माँ से आस छूटा, श्वास टूटी
पल में सारा संसार छूटा,
ये कैसा अंत ???
...... कौन किसके आंसू पोछे
        कौन दिलासा दे किसको
परिवार बिखरे,
लोग बिछड़े,
स्वयं के प्राण, बचाएँ या
अपनों को ढूंढूें,
कोई तो आए, हमें बचाए
 
 इस निष्ठुर जल के प्रकोप से
बहते धार के साथ - साथ
बह चले हम भी, मजबूर हैं हम
जो बचे भाग्य से, वह भी,
रो रहे, हाय ! मेरे - अपने कहाँ गए ?
भिखारी बना दिया है
इस विभीषिका ने हमें
भोजन ऐसे लूटते हैं
जैसे कभी मिला न हो
ऐसे झपटते हैं, जैसे
इन्सान नहीं पशु बन गए हों हम
कैसी विडंबना, कैसा दुर्भाग्य हमारा
उस पर नेताओं की चलती राजनीति
भेद देती है, हृदय भीतर तक
क्या- क्या सुनाएँ, किसे सुनाएँ
हम तो बन कर रह गए हैं
केवल, "आज के मुख्य समाचार" ।
बिना जल के दम तोड़ते देखा था
जल के कारण
जान जाते भी आज देखा है
हृदय- विदारक दृश्य यह
कलेजा कँपा देती है जब
तो झेलने वाले इसे
क्या कभी भुला पाते होंगे?
त्रासदी यह, कहानी कहती है
स्वंय ही___
पर क्या इसे रोक पाना
सचमुच है असंभव?
चाँद और अंतरिक्ष को
जीत आया मानव
क्यों हार मानता आ रहा है
धरती पर
प्रकृति के प्रकोप से?
तिस पर,
        कुछ की सोच तो देखो
        लूट रहे, लुटे हुओं को कैसे?
        कैसे नोंचते गिद्ध बने हैं
        परोपकार को ताक पर रखकर
        छीन निवाला मजबूरों से
        खुद को सिकंदर समझ रहे हैं
        कैसी मति गई मारी, कि
        स्वयं को पशु बना डाला है ।

क्या यह विभीषिका की पराकाष्ठा है ?

             - मधु रानी
               30/08/2016

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