Sunday, 24 December 2017

मन का सुख

आज कुछ लोगों से
हो गई मेरी बहस
विषय था – भ्रष्टाचार |
तीखा हो विषय ही जब
गर्मा – गर्मी तो होनी ही थी |
कहना था उनका,
‘कर’ तो हम भी देते हैं |
पर,
   कर देने के काबिल तो
   वो आज बने
इससे पूर्व तो चाहे
शिक्षण – संस्थान हो
या, न्युक्तियाँ,
प्रवेश तो पाया
अवैधानिकता अपना कर |
क्या धन के बल पर प्रवेश पाकर
नहीं किया योग्यता पर प्रहार ?
नहीं छीना योग्य उम्मीदवार का स्थान ?
बिना योग्यता, बिना परिश्रम,
धन के बल पर, बन बैठे अधिकारी
और इतराते आज ऐसे, जैसे
शेष सभी हैं निम्नतर |
दहेज़ की गाड़ी में घूमते
बड़ी – बड़ी बातें करते
योग्यता की धज्जी उड़ाते |
निम्न पद ही सही
पर,
योग्यता से, पाए लोगों पर
सदा अपनी धौंस जमाते  |
आता जाता कुछ न हो पर
खुद को शेर, औरों को बकरी बनाते |
हम कुछ तर्क दे न पाते
देश की कुव्यवस्था पर पछताते |
कैसे नींद आती है उनको
जो देश को बेच हैं खाते,
गलत रह पर चल कर, धन कमाते ?
भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे
कैसे हृदय गवारा करता,
मन – मस्तिष्क चैन है पता ?
बेहतर हैं वह, जो नेकी पर चलते
चैन की नींद और सुख से रहते |
मन -  मस्तिष्क को सुकून है ये
जो भी पाया अपने बल बूते |
गिरा किसी को – नहीं – जगह बनायी
अपनी योग्यता, मेहनत से पायी |
न पथभ्रष्ट बने, न भ्रष्ट पथ पर चले
न देश को बेचा, न पद ख़रीदा
न भोग किया, न विलास किया
न खौफ रहा, न डर किसी का
अभावों में जीकर भी जिसने
हर पल मन का सुख पाया |

                                           -- मधु रानी
                                           17-11-2016

Tuesday, 5 September 2017

शिक्षक हूँ …



शिक्षक हूँ
बच्चों को सभ्यता सिखाती हूँ
सभ्य समाज की नींव रखती हूँ
पर, स्वयं सम्मान की मोहताज़ हूँ |

शिक्षक हूँ
कुरीतियों को समाज से दूर करती हूँ
ज्ञान ही नहीं मनुष्यता भी सिखाती हूँ
पर समाज और मनुष्य के प्रेम की मोहताज हूँ |
कर्मठ हूँ
कर्म करती हूँ, बच्चों को सिखाती हूँ
कर्म करो फल की चिंता न करो
फल तो दूर, दो टूक प्रशंसा के शब्द की मोहताज़ हूँ |

शिक्षक हूँ
पढ़ाने – लिखाने के साथ, कागजातों – रिपोर्टों
खिलाने – पिलाने, की भी जिम्मेदारी निभाती हूँ
फिर भी कोई खुश नहीं, ख़ुशी पाने की मोहताज हूँ |

शिक्षक हूँ
दिन – भर शारीरिक – मानसिक श्रम करती हूँ
घर – बार, पति, बच्चे, सब त्याग, काम के बोझ तले दबी हूँ
एक साथ कई काम हैं, फुर्सत के दो पल की मोहताज हूँ |

शिक्षक हूँ
 पढ़ाना सिखाना काम है, पर हम है रसोइये भी,
ठेकेदार और राजमिस्त्री भी, चुनाव कराना और भी कई सैकड़ों काम हैं
इसमें पिसती अपने खोए अस्तित्व को पहचानने की मोहताज हूँ |

शिक्षक हूँ
अब सोचती हूँ, नाहक बनी शिक्षक
कुछ भी और बनना था, कोल्हू का बैल तो न बनती
क्या थी, क्या हो गई मैं, क्या बताऊँ किस – किस की मोहताज हूँ |

शिक्षक हूँ
भारत में, यही दोष है शायद
शेष सभी देशों में ये गत नहीं है शिक्षकों की
मान – सम्मान, पैसा, सब है वहाँ, शायद इसलिए
आज गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का मोहताज़ है देश |

शिक्षक हूँ
ईमानदारी से कर्म करती हूँ
देश के सपूतों को पैरों पर खड़ा करती हूँ
स्वयं भले अस्वस्थ हो, बैसाखी की मोहताज हूँ |
हमारे शिक्षक
भाग्यशाली थे, जिन्हें सिर्फ ज्ञान बाँटना होता था
विद्यालय सरस्वती का मंदिर था, अब तो होटल लगता है
सारे काम होते हैं, पर बच्चे शिक्षा के मोहताज हैं |
आज के शिक्षक
कोई व्यस्त है, भवन निर्माण कार्य में
कोई कागजातों में घुसे किरानी बने हैं
कोई भेजे गए चुनाव कराने तो
कोई व्यस्त है शौचालय और नल लगवाने में
क्या – क्या करे आखिर, और पढाएँ कब
फिर भी चाहिए उत्तम परीक्षा फल
कैसी व्यवस्था, जिसमें जीने के मोहताज़ हैं हम ?
-- मधु रानी
05-09-2017

03.00  am

Sunday, 27 August 2017

क़र्ज़

बचपन से जवानी
के दिन
कब बीते, कैसे बीते
पता न चला
जीवन के तीसरे पायदान पर
पाँव रखते ही
जब जीवन में
सन्नाटा है, उदासी है
तो लगा
कुछ पन्ने पलटूं
बीते जीवन के
एकाकीपन कुछ तो
होगा कम ---
जब अपने बचपन से लेकर
अपने बच्चों के बचपन तक
की यादों को समेटूंगी |
पुनर्स्मरण करने बैठी जब
आँखें मूंदे......
एक-एक कर यादें
आती जाती रहीं,
आपस में उलझती रहीं
चलचित्र की भाँती
कथाएं बुनती रहीं |
मैंने देखा.......
     कितनी निष्ठुर थी मैं,
     पिता से किया जिद,
     माँ से बेवजह बहस,
     भाइयों से झगड़े किये
     तो दोस्तों से नखरे
     सनकी थी मैं या उच्छृंखल
     व्यथित हुई मैं........
     कितना परेशान किया सभी को
     सबने कितना सहा है –
     मेरे कारण -- ?
     अब कैसे हूँ मैं
     इतनी सहज?
सच –
     एहसान बहुत हैं
     सबके मुझ पर
     कैसे मैं चुकाऊँ
     ये क़र्ज़ ???

n  मधु रानी

04/09/2016

Saturday, 17 June 2017

पिता



पिता वह शख्सियत है
कल्पना से ही जिसकी
जीवन में ----
उमंग, उत्साह और
उर्जा का ----
संचार होता है |
          उनके न होने का अहसास
          एक `हूक’ उठाती है
          दिल में
          टीस और दर्द के
          मर्म का ----
          फिर हिल्लोर आता है |
शत – शत नमन है
ऐ पिता तुम्हें,
जिन्होंने ----
अवलंबन बन कर
दृढ़ता से ----
सदा थाम रखा है |
          कभी छाँव, कभी जमीं
          कभी पूरा आकाश
          बनकर ----
          स्नेह – सिक्त हाथों से
          पल – पल ----
          मुझे दुलार जाता है |
खुदा आप हो मेरे
जहाँ आप हो मेरे
ये ख्याल ----
आज भी मेरी
किस्मत ----
सवाँर जाता है |


पितृ दिवस पर मेरे पूज्य पिताजी को समर्पित
                   -- मधु रानी
जून -2015

    

Saturday, 6 May 2017

अबोध मन की अभिलाषा


मातृ दिवस के अवसर पर…
On the occasion of Mothers' ​Day.



माँ,
      आ, पास बैठ ज़रा, दो – चार बातें कर लूँ – ज़रा | 
सान्निध्य तेरा पाने को ढूंढ रहा, वक्त थोड़ा
बचपन बीता जाता मेरा, कब होगा आलिंगन तेरा |
     आँचल में तेरे छिपना चाहूँ, पर फुर्सत कहाँ तुझको – मुझको
     तेरा काम बाधा डाले, मेरा काम मुझे रोके |
कैसे पाऊँ वो दुलार, जो मिला गोद में तेरी
अब तो दीवार समस्याओं की, जद्दोजहद – जीवन जीने की |
     पाऊँ कैसे ममता तेरी, स्नेह – सिक्त ह्रदय में,
     जो तू है संजोए, मेरे लिए |
तू थक कर सोई, मैं रात भर जागा,
लोरी बिना जब नींद न आई, तब तेरे आँचल में सोया |
     कितना करती है तू, माँ, केवल काम ही काम,
     काश ! मैं होता बड़ा, तुझको देता हरदम आराम |
पर, तब बचपन मेरा रीता रहता, तेरे लाड़ से अछूता रहता,

माँ,
    आ, पास बैठ जरा, दो – चार बातें कर लूँ – जरा |
तू जाती जब छोड़, मुझे अकेला, सहमा – सहमा रहता हूँ मैं
हर आहट पर तेरे आने की, भ्रम में जीता हूँ मैं |
     मेरा मन भी करता, मैं साथ चलूँ तेरे
     अपने नन्हें हाथों से जीवन में, कुछ रंग भरूँ तेरे |
वह भीनी – सोन्ही महक, जब तेरे आँचल से आती
सब्जी, मक्खन, कोयले और मसाले की |
     तब मंत्रमुग्ध हो जाता हूँ मैं ,
     सोंच – सोंच ये, तू आती होगी |
खूब खेलूँगा गोद में तेरी, तू चूमेगी माथा मेरा |
माँ,
    आ, पास बैठ जरा, दो – चार बातें कर लूँ – ज़रा |
    
-- मधु रानी

15-10-2015

Thursday, 4 May 2017

दिल चाहता है




१. बचपना करने को आज भी जी चाहता है,
      कुछ खुराफात करने को आज फिर दिल चाहता है |

२. जी चाहता है दौड़ पडूँ, सीमाओं को लाँघ कर
   या उड़ चलूँ, क्षितिज की ओर पतंग बनकर |

३. तोड़ – फोड़ करूँ, खिलौनों के साथ, और फिर
    रो पडूँ चीख – चीख कर नए खिलौनों के लिए  |

४.  हँसूं दिल खोलकर, निश्छल हँसी
   ज़माने ने हैं मुस्कुराहट पर ताले जड़े |

५.  रचाऊँ गुड्डे – गुड़ियों का विवाह, दोस्तों के साथ
   पिटूँ फिर से एक बार माँ के हाथ |

६.  उछलूँ – कूदूँ, खेलूँ या गिर पडूँ,
    मर्जी मेरी हो, मैं चाहे जो करूँ |

७.  बंधनों को तोड़ कर, आजाद जीने को जी चाहता है
 तनावों से मुक्त होकर, खिलखिलाने को दिल चाहता है |

८.  ज़िद से झुकाऊँ सबको या सिर पर उठा लूँ घर को
    नखरे दिखा कर, आज भी चलो सब को सताऊँ फिर से |

९.   न बात सुनूँ किसी की, न ज़ोर ज़बरदस्ती हो
    अपने मन का करना बस यही ज़िन्दगी हो |

१०  तितलियों के पीछे भागूँ, बागों में झूले झूलूँ
     भँवरों से डर कर भागूँ, नाचूँ गीत गाऊँ |

११. अपनी ही धुन में मस्त, सोचूँ न पीछे – आगे
    जो होगा देखा जायेगा, भावना यही जागे |

१२.  जो आये कोई शिकायत, पड़ोसियों के घर से
     छुप जाऊँ झट जाकर, आँचल में ममता के |

१३.   वो छिपना, वो छिपाना, उल्टा – सीधा पढ़ना
     चुपके – चुपके, बंद दरवाजे खोल भागना |

१४.   न डर न कोई खौफ़ था, न चिंता न फिकर थी
      कर - कर के गलतियाँ भी, ज़िन्दगी सुखद – सरल थी |

१५.   ऐसी ही कुछ मस्तियाँ, करने को जी चाहता है
     बचपन में लौट फिर से, गुनगुनाने को दिल चाहता है |


१६.   क्या थे पल वो, कैसे थे, मधुर – मधुर सपनों जैसे
     क्यों आज हाथ न आते वो पल, मुट्ठी से फिसलते जाते हों जैसे |



-मधु रानी
21/11/2016