नमन करुँ माँ
नत-मस्तक हो
क्षमा मागूँ मैं ।
आज़ाद किया अँग्रेजों से पर ,
अब भी तू परतंत्र दिखे माँ
भ्रष्टाचार की जंजीरों से
कैसे करुँ स्वतंत्र तुझे माँ ?
तेरी ही छाती पर मूँग दरें
ऐसे कुपुत्र क्यों जनीं, तूने माँ
नोंच रहे गिद्धों - सा तुझे
कैसे मनाऊँ आज़ादी, तेरी माँ ?
तू दिल-ही- दिल में रोती, धुटती
दिग्गज़ जन रहे रक्त की नदियाँ बहा
अश्रु और रक्त, अब मिट्टी को सींच रहे
जहाँ उगते थे स्वर्ण-बाली, वहाँ भ्रष्टाचारी उग रहे।
क्षमा-दान दे दे माँ,मुझको
मैं न लगा पाऊँगा अबकी
तेरी स्वतंत्रता का नारा
जब तक तू न होती स्वतंत्र।
-मधु रानी
06/08/2016

बहुत उम्दा व प्रेरक रचना। बधाई मधु।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद, जेन्नी।
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