Sunday, 10 March 2019

फ़र्ज और दर्द



जीवन में बहार थी
दिलों में करार था
जब हम जवां थे और
पहला-पहला प्यार था।
        प्यार बढ़ता गया
        परवान चढ़ता गया
        निहाल हो गये हम
        जब एक हो गए हम।
चाह रही न शेष कुछ भी
स्वर्ग- सा सुख भोग रहे थे
दिवा-स्वप्न में खोए हुए
पंख लगा उड़ रहे थे।
        कब आई आंधी
         तुम दूर हुए
         कब टूटा सपना
         हम मजबूर हुए।
कर्म ने पुकारा तुम्हें
फ़र्ज की तुम सुनते रहे
फासला बढ़ता गया
दर्द मेरे बढ़ते रहे।
         झुकना तुम्हें मंजूर नहीं
          रुकना तुम्हें आता नहीं
           मुड़कर पीछे देखना
           तुमने कभी सीखा नहीं।
खड़ी अपनी डगर
ठगी-सी   मैं
आवाज दूं किसे
रूठूं, मैं किससे?
            राहें हुईं पृथक
            कभी न मिलने वाली
             ये कैसा मोड़ है
              जहां राहें मिलती नहीं।
कर्मयोगी हो तुम
अच्छा है, बहुत अच्छा
लड़ रही अकेलेपन से
भुक्तभोगी हूं मैं।
                तुम्हें मिल गये
             ‌   नये साथी
                 कर्म के पथ पर
                मेरी राह सुनसान को
                जाती है।
बहुत ऊंचाई पर
हवा नहीं होती
सांस लेना हो तो
धरती पर लौटना होगा।
             लड़ सकती हूं मैं
             अधिकार सारे , मेरे
              मुझे दे दो ,पर
           लड़ना मेरी फितरत नहीं।
उम्मीद छोड़ दी
तेरे लौटने की
चल पड़ती हूं संग तेरे
पत्थर की मूर्ति बनी।
            साथ अब भी हैं हम
             पर राहें अलग
              मंजिलें अलग
           हाथों में हाथ नहीं है बस।
तुम सीढ़ियां चढ़ते जा रहे
मैं नीचे इंतजार में खड़ी
तुम्हारा उतरना नामुमकिन
मेरा चढ़ना सपने- सा।
              हम दोनों के बीच
              कर्म की रेखा
              सांसारिकता नहीं
              सामाजिकता की बाधा।
तुम मग्न
अपनी दुनिया में
मैं   मायूस
तेरी फिक्र में।
             आंसू ढलकने दिया नहीं
             पलकों पर ही रोक लिया
             मुस्कान कभी अधरों से
             जुदा हमने किया नहीं।
जीना, हंसकर सीख लिया
आंसू पीना भी सीख लिया
फ़र्ज और दर्द की लड़ाई में
दर्द छुपाना सीख लिया।

-मधु रानी
03/01/2017

No comments:

Post a Comment