Saturday, 14 September 2019

हिंदी

सु–मधुर
स्नेहमयी,
समृद्ध ,
फिर भी ——
प्रसार की आवश्यकता ।

तोड़ी – मरोड़ी गई
तब भी न बिखरी
जोड़े रखा स्नेह – बंधन
अब भी ——
और प्रयास की जरूरत ।

विशाल हृदय
हिंदी का
आत्मसात करती
कई भाषाएं
फिर भी ——
सम्मान की अभिलाषा ।

हिंदी निभाती
भारतीयता बखूबी
भारत आश्रय सभी धर्मों का
हिंदी भी कई भाषाओं का
किन्तु ——
मौलिकता की आशा ।

— मधु रानी
    14/09/2016

Sunday, 10 March 2019

फ़र्ज और दर्द



जीवन में बहार थी
दिलों में करार था
जब हम जवां थे और
पहला-पहला प्यार था।
        प्यार बढ़ता गया
        परवान चढ़ता गया
        निहाल हो गये हम
        जब एक हो गए हम।
चाह रही न शेष कुछ भी
स्वर्ग- सा सुख भोग रहे थे
दिवा-स्वप्न में खोए हुए
पंख लगा उड़ रहे थे।
        कब आई आंधी
         तुम दूर हुए
         कब टूटा सपना
         हम मजबूर हुए।
कर्म ने पुकारा तुम्हें
फ़र्ज की तुम सुनते रहे
फासला बढ़ता गया
दर्द मेरे बढ़ते रहे।
         झुकना तुम्हें मंजूर नहीं
          रुकना तुम्हें आता नहीं
           मुड़कर पीछे देखना
           तुमने कभी सीखा नहीं।
खड़ी अपनी डगर
ठगी-सी   मैं
आवाज दूं किसे
रूठूं, मैं किससे?
            राहें हुईं पृथक
            कभी न मिलने वाली
             ये कैसा मोड़ है
              जहां राहें मिलती नहीं।
कर्मयोगी हो तुम
अच्छा है, बहुत अच्छा
लड़ रही अकेलेपन से
भुक्तभोगी हूं मैं।
                तुम्हें मिल गये
             ‌   नये साथी
                 कर्म के पथ पर
                मेरी राह सुनसान को
                जाती है।
बहुत ऊंचाई पर
हवा नहीं होती
सांस लेना हो तो
धरती पर लौटना होगा।
             लड़ सकती हूं मैं
             अधिकार सारे , मेरे
              मुझे दे दो ,पर
           लड़ना मेरी फितरत नहीं।
उम्मीद छोड़ दी
तेरे लौटने की
चल पड़ती हूं संग तेरे
पत्थर की मूर्ति बनी।
            साथ अब भी हैं हम
             पर राहें अलग
              मंजिलें अलग
           हाथों में हाथ नहीं है बस।
तुम सीढ़ियां चढ़ते जा रहे
मैं नीचे इंतजार में खड़ी
तुम्हारा उतरना नामुमकिन
मेरा चढ़ना सपने- सा।
              हम दोनों के बीच
              कर्म की रेखा
              सांसारिकता नहीं
              सामाजिकता की बाधा।
तुम मग्न
अपनी दुनिया में
मैं   मायूस
तेरी फिक्र में।
             आंसू ढलकने दिया नहीं
             पलकों पर ही रोक लिया
             मुस्कान कभी अधरों से
             जुदा हमने किया नहीं।
जीना, हंसकर सीख लिया
आंसू पीना भी सीख लिया
फ़र्ज और दर्द की लड़ाई में
दर्द छुपाना सीख लिया।

-मधु रानी
03/01/2017

Sunday, 13 January 2019

दोष न दो फिर ईश्वर को

-: दोष न दो फिर ईश्वर को :-

ऐ मानव!
तेरे ही कुकर्मों का फल है
कि आज तू मर रहा
अत्यधिक ठंड और
अत्यधिक गर्मी से।
पारा निरंतर गिर रहा
ठंड जाने का नाम ही नहीं ले रही
मानो इस बार सालों भर
डेरा जमाए रखेगी
या हमारी जान लेकर ही जाएगी।
यही रहेगा हाल गर्मियों में, तो
सोचो, पारा, कहां तक बढ़ता जाएगा
रुकेगा कहीं या यूं ही हमें जलाएगा।
पृथ्वी या तो बर्फ या आग बनती  जा रही
सोचा है कभी ऐसा क्यों हो रहा है?
सोचा तो होगा, शायद, जानता  भी है तू
परंतु किया क्या और कर क्या रहा है?
एक - दूसरे पर टालता जा रहा
प्रकृति का दोहन करता जा रहा
पर, भुगत कौन रहा है आज ?
ठंड से मरो या गर्मी से
भूकंप से मरो या तूफान से।
दोष सिर्फ ईश्वर को देते हो
क्या ईश्वर ने ऐसी ही दुनिया बनाई थी?
क्या ईश्वर, प्रकृति को नष्ट कर रहा है ?
अगर तुम, बचा नहीं सकते कुछ  तो
नष्ट भी तो न करो।
जियो सुख से, औरों को भी जीने दो
प्रकृति के मित्र बनो, खिलवाड़ न
करो
वर्ना जब यह समीकरण उलट जाएगा
तब होगा केवल और केवल
विनाश और  विनाश।
कुछ तो डरो भविष्य से
कुछ तो बचाओ अपने
बच्चों के लिए भी
पर शिक्षा के अभाव में यहां
कौन किसे समझाए
फिर भुगतो प्रकृति का कहर
दोष न दो फिर ईश्वर को।

-मधु रानी
12/01/2018