Sunday, 27 August 2017

क़र्ज़

बचपन से जवानी
के दिन
कब बीते, कैसे बीते
पता न चला
जीवन के तीसरे पायदान पर
पाँव रखते ही
जब जीवन में
सन्नाटा है, उदासी है
तो लगा
कुछ पन्ने पलटूं
बीते जीवन के
एकाकीपन कुछ तो
होगा कम ---
जब अपने बचपन से लेकर
अपने बच्चों के बचपन तक
की यादों को समेटूंगी |
पुनर्स्मरण करने बैठी जब
आँखें मूंदे......
एक-एक कर यादें
आती जाती रहीं,
आपस में उलझती रहीं
चलचित्र की भाँती
कथाएं बुनती रहीं |
मैंने देखा.......
     कितनी निष्ठुर थी मैं,
     पिता से किया जिद,
     माँ से बेवजह बहस,
     भाइयों से झगड़े किये
     तो दोस्तों से नखरे
     सनकी थी मैं या उच्छृंखल
     व्यथित हुई मैं........
     कितना परेशान किया सभी को
     सबने कितना सहा है –
     मेरे कारण -- ?
     अब कैसे हूँ मैं
     इतनी सहज?
सच –
     एहसान बहुत हैं
     सबके मुझ पर
     कैसे मैं चुकाऊँ
     ये क़र्ज़ ???

n  मधु रानी

04/09/2016