दूर, बहुत दूर, क्षितिज पर, उदित होते हुए सूर्य को देख कर
उठती है मन में बस यही बात,
शायद यह अरुणिम किरण आज,
लाई है आशा की नवज्योति साथ,
मन में यह नवकल्पना लिए हुए,
चल रहा भिखारी झुके हुए |
उदर है पीठ से सटे हुए,
पर दुर्भाग्य --------- कि
नहीं पड़ती किसी की नज़र इनपर
गर, पड़ भी जाये तो मिलती है ---------
बस दुत्कार और फटकार |
चैत की कड़कती धूप में, जल रहे हैं बदन
फिर भी आँखों में
घिर आया है सावन,
दिल के दो टुकड़े हैं साथ
थामे दामन |
किन्तु घिरने लगी है अब लालिमा संध्या की, यूँ खत्म
होता है सफ़र भिखारी का,
मान ईश्वर की देन इसे
रह गए भरोसे, भाग्य के
पर कैसे समझाएं इन दिल के टुकड़ों को
जो है तड़पते क्षुधा से |
सफ़र जो शुरू हुआ था, सूर्य की तेजस्वी किरणों के साथ
खत्म भी हुआ, सूर्य की डूबती किरणों के साथ |
किन्तु क्षुधा अब भी है साथ |
-मधु रानी
06/04/1983

